घुसपैठियों पर घमासान, फिर वही हिंदू-मुसलमान


सम सामयिक  डॉ. धीरज फुलमती सिंह


देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे भी भारत में सियासत की भेंट चढ़ जाते हैं. इसका ताजा उदाहरण है एनआरसी का लागू किया जाना. मगर जहां इसे लागू भी राजनीतिक उद्देश्य से किया गया है, वहीं इसके जरिये सियासी दांव चलने और अपने मोहरे बचाने के लिए राजनीतिक कवायद भी खूब हो रही है. यही वजह है कि इस पर सियासी घमासान जारी है.


ने यह तय किया है कि सभी धर्मो के घुसपैठियो (रिफ्यूजी) को यहां से हर हाल में जाना होगा, हम उन्हें अपनी आबादी मे नहीं मिलाने वाले हैं, ये घुसपैठिये भारत की राजनीतिक स्थिरता और आजादी के लिए खतरनाक हैं ! पाकिस्तान से 1971 के युद्ध की जीत के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने बांगलादेशी घुसपैठियो के बारे में यह बयान दिया था. असम का राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) सुर्खियों में बना है. सड़क से लेकर संसद तक इसकी चर्चा हो रही है. इस बात को यहां जानना जरूरी है कि असम भारत का इकलौता राज्य है, जहां एनआरसी की व्यवस्था लागू है. एनआरसी की सूची के मुताबिक 3.39 करोड़ लोगों में से 2.89 करोड़ लोगों को भारत की नागरिकता के योग्य पाया गया है. वैसे अभी इस पर विवाद है. नागरिकता साबित करने के लिए अभी कुछ दिनों की और मोहलत मिली है, इसलिए आधिकारिक तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा बाजार गरम है. एनआरसी के अंतिम ड्राफ्ट के आने के बाद से असम के साथ-साथ पूरे देश में सियासी मसले पर विपक्ष और सत्तारूढ़ दल त्योरियां चढ़ाये एक-दूसरे के सामने आ खड़े हुए है.


दरअसल असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियो को लेकर हमेशा से विवाद रहा है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग में लगभग पचास लाख बांग्लादेशी नागरिक दिसंबर 1971 के बाद से अवैध रूप से रह रहे हैं. यह दुनिया में किसी भी राष्ट्र में गैरकानूनी तरीके से रह रहे किसी एक राष्ट्र के घुसपैठियों की सबसे बड़ी संख्या है. भारत इस घुसपैठ का शिकार पिछले 48 सालो से हो रहा है. वैसे यह समस्या असम के 26 जनवरी,1960 में अस्तित्व मे आने के बाद से ही चली आ रही है, लेकिन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के कारण बांग्लादेश के वजूद में आने के बाद इसने और भी विकराल रूप धारण कर लिया.


1979-85 के बीच असम मे राजनीतिक अस्थिरता रही. राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन होते रहे. कई बार इन आंदोलनों ने हिंसक रुख इख्तियार कर लिया. राज्य में अभूतपूर्व जाति आधारित हिंसा के हालात बनने लगे. परिणाम स्वरूप राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा. दरअसल, आंदोलन के दौरान फरवरी, 1983 में हजारों आदिवासियों ने नेल्ली क्षेत्र के बांग्ला-भाषी मुस्लिमों के दर्जनो गांव को घेर लिया था. आदिवासियों को इन मुस्लिमों पर बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का शक था. सात घंटे की घेराबंदी में लगभग दो हजार मुस्लिमों का कत्ल कर दिया गया. गैर आधिकारिक तौर पर हत्या की संख्या तीन हजार से अधिक बताई जाती है. तब स्वतंत्र भारत का यह सबसे बड़ा नरसंहार था.


बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर हालांकि इस दौरान आंदोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच बातचीत चलती रही जिसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त, 1985 को राजीव गांधी की सरकार और आंदोलनकारियों के बीच असम समझौता हुआ था. 1985 में राजीव गांधी के साथ जो असम समझौता लागू हुआ था, उसकी समीक्षा का काम 1999 में तात्कालिक भाजपा सरकार ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मार्गदर्शन मे शुरू किया. इसके बाद 05 मई 2005 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फैसला लिया कि एनआरसी को अपडेट करना चाहिए. उस वक्त एनआरसी के पक्ष में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी थी. वह इस मुददे पर सरकार के साथ थीं. बाद में असम पब्लिक वर्क नामक सामाजिक संस्था सहित कई संगठनों ने घुसपैठियों के मुद्दे को लेकर 2013 मे सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर दी. जबकि न्यायालय ने एनआरसी पर स्वयं संज्ञान लेते हुए इसकी समीक्षा की अंतिम तिथि 2013 कर दी थी. उसी वर्ष जनहित याचिका दायर होने के कारण यह मामला थोड़ा और पेचीदा हो गया. 2013-17 तक असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में कुल चालीस सुनवाइयां हुईं. इसके कारण नवंबर 2017 में असम सरकार ने हलफनामा दाखिल कर के वादा किया था कि 31 दिसम्बर, 2017 तक वह एनसीआर को अपडेट कर देगी.


आज भले ही भाजपा एनआरसी के मुद्दे को बड़ी सफाई से सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर रख कर गोली चलाने की जुगत मे हो, लेकिन फरवरी-मार्च 2014 में जब लोकसभा चुनाव का दौर था और चारों तरफ मोदी लहर की सुगबुगाहट सुनाई दे रही थी, तब चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे को खुब कर हवा दी थी. तब इसे देश की सुरक्षा और संप्रभुता से जोड़ कर देखा जा रहा था और बांग्लादेशियों को वापस भेजने की बात की जा रही थी. 2016 में असम में भाजपा सरकार के अस्तित्व में आने के बाद एनआएसी को अमली जामा पहनाने का काम शुरू हुआ.


आज फिलहाल भारत की राजनीतिक फजा बदली-बदली सी है. घुसपैठियों के मुद्दे पर जहां सबको एक होना चाहिए था, वहां सभी सियासी पार्टियां अपना नफा-नुक्सान देखकर अपना-अपना एजेंडा तय कर रही है और इस मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम तुष्टिकरण से जोड़ दिया गया है.


ओवैसी-ममता ने इसमें मुस्लिमों का छौंक लगाया, तो भाजपा-शिवसेना ने हिंदुत्व का तड़का लगा दिया. कांग्रेस ने भी इस पर बांग्ला अस्तित्व का तेल डाल दिया है. ये सभी पार्टियां देश के मुद्दे को धर्म-भाषा के धरातल पर लेकर दौड़ रही हैं. फिलहाल, इस मुद्दे का सियासी अंजाम क्या होगा यह समय के गर्भ में है, लेकिन इस पर सियासत की बिसातें जरूर बिछती जा रही हैं.